Tuesday, June 29, 2010

समूह चित्र


समूह चित्र 
हर प्रयास के बाद भी 
आ नहीं रहे हैं सभी लोग फ्रेम में 
निरर्थक समूह चित्र की कोशिश 
हर बार कुछ लोग छुट रहे हैं 
यह है शायद कैमरे की मज़बूरी 
या हम ही बिखर गए हैं 
फ्रेम में हैं जो कुछ लोग 
धक्का लगाकर आ गये हैं केंद्र में 
कमजोर थे जो वो स्वयं 
हट गए हैं फ्रेम से 
पूरी हो जाये फ्रेम 
अगर खड़े हो जाएँ 
पिताजी और चाचा एक साथ 
भूल जाएँ पुरानी सारी बात 
बांटा जिसने एक ही आँगन को 
वो रक्त रंजित बाड़ खड़ी है 
फ्रेम में आ रही है वह घर भी 
जो जली थी एक चिंगारी से 
धधक रही थी आग 
बाड़ के इस पर भी उस पार भी 
पहले तो नहीं थी ऐसी कोई बात 
कई चित्र हैं हमारे एक साथ 
अब शायद आ गयी है समय की दूरी 
या है एक साथ खड़े होने में कोई मज़बूरी

2 comments:

  1. What to comment about your article..i don't understand...all your poems are awesome..So please carry on writing such poems...Best of luck for future.

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