Tuesday, June 29, 2010

समूह चित्र


समूह चित्र 
हर प्रयास के बाद भी 
आ नहीं रहे हैं सभी लोग फ्रेम में 
निरर्थक समूह चित्र की कोशिश 
हर बार कुछ लोग छुट रहे हैं 
यह है शायद कैमरे की मज़बूरी 
या हम ही बिखर गए हैं 
फ्रेम में हैं जो कुछ लोग 
धक्का लगाकर आ गये हैं केंद्र में 
कमजोर थे जो वो स्वयं 
हट गए हैं फ्रेम से 
पूरी हो जाये फ्रेम 
अगर खड़े हो जाएँ 
पिताजी और चाचा एक साथ 
भूल जाएँ पुरानी सारी बात 
बांटा जिसने एक ही आँगन को 
वो रक्त रंजित बाड़ खड़ी है 
फ्रेम में आ रही है वह घर भी 
जो जली थी एक चिंगारी से 
धधक रही थी आग 
बाड़ के इस पर भी उस पार भी 
पहले तो नहीं थी ऐसी कोई बात 
कई चित्र हैं हमारे एक साथ 
अब शायद आ गयी है समय की दूरी 
या है एक साथ खड़े होने में कोई मज़बूरी

Sunday, May 2, 2010

आईने के सामने

आईने के सामने

होता है सामना

वास्तविकता से मेरा

जब मैं खड़ा होता हूँ

आईने के सामने

करना होता है मुझे सामना

उस विम्ब का

जो मेरा अपना होता है

यह वही विम्ब है

जो हर अच्छे-बुरे कर्म में

मेरे साथ रहा

सब कुछ देखा

पर कभी कुछ न कहा

उस वक़्त भी

जब खोया था इमान मेरा

उस वक़्त भी

जब जागा था शैतान मेरा

यह तो हर उस कर्म का भी साक्षी है

जो मैंने अँधेरे में किया

दुनिया से छुपाता रहा असली चेहरा

पर विम्ब ने तो

सब देख ही लिया

आईने के सामने खड़े होने पर

अब विम्ब मुस्कुराता है

हिम्मत है तो करो मेरा सामना

हर पल एहसास दिलाता है

कभी कभी सोंचता हूँ

खोया जो आकर यहाँ

वह तो मेरा अपना था

पाया जो आकर यहाँ

वह तो मेरा सपना था

जानना था जिस विम्ब को

वह भी मेरा अपना था

Saturday, April 10, 2010

अनपढ़ औरत


अनपढ़ औरत 
जानता हूँ एक औरत को जो 
अनपढ़ है 
इस एक अवगुण को छोड़कर 
सर्व गुण संपन है 
सादगी और सुन्दरता 
की मूरत है 
छलकता हुआ प्रेम 
कमसीन सी सूरत है 
करती है सबकी सेवा 
सबको है अपना माना
पर जरा सी चूक पर
देते हैं सभी उलहाना
अनपढ़ और गंवार 
पर इस दोष के लिए 
वह तो नहीं जिम्मेदार 
स्कूल नहीं गाँव में 
इसमें बदकिस्मती किसकी 
माँ-बाप ने पढाया नहीं 
यह नियति किसकी 
हर उलहाना  के बाद भी 
होंठों पर नाचती है मुस्कुराहट
भूल कर भी नहीं चाहती
करना किसी को मर्माहत 
मर चुकी है सारी इच्छा 
पर बच्चों को अपने 
पढाना  चाहती है 
उन्हें न दे कोई उलहाना 
इस कदर बनाना चाहती है. 

Sunday, March 28, 2010

हंसी

हंसी 
खिलखिला कर हंस रहा है 
वो बच्चा क्यों 
क्या छेड़ा किसी ने 
व्यंग प्रसंग
या उड़ा रहा है 
उपहास किसी का 
या दिखा किसी का
नग्न अंग 
या तबाह हुआ घर किसी का 
या हुआ किसी का स्वप्न भंग
या गिरवी रह गयी 
किसी की इच्छा 
उसकी पगड़ी के संग
या विभक्त हुआ है आज फिर 
लहू का रंग 
पर क्या जाने ये बाल मन 
दुनिया के सारे छल प्रपंच 
होती जहाँ छुपी हंसी में भी 
कुटिलता के तरंग

Sunday, March 14, 2010

बेटी

बेटी 
माँ मैं भी पढ़ना चाहती हूँ 
भैया की तरह मैं भी स्कूल जाना चाहती हूँ
पापा के साथ मैं भी चलना चाहती हूँ 
तुम मेरे लिए भी सुबह नास्ता बनाना 
भैया के तरह अपने ही हांथों से खिलाना 
तुम मेरे भी नखरे सहना 
इंतजार में मेरे भी दरवाज़े पर रहना 
माँ मैं जानती हूँ मेरे जन्म पर 
तुम कितना रोई थी 
दादा, दादी और पापा के 
कितने ताने सही थी 
उम्मीद  थी तुम लोगों को बेटे की 
जो कुल का नाम रोशन करेगा 
खानदान को आगे बढ़ाएगा 
और बुढ़ापे की लाठी कहलायेगा 
पर मेरे आने पर सभी ने मातम मनाया 
हर खिलोने के  लिए मुझ पर एहसान जताया 
इन एहसानों के बोझ तले 
अब मैं दब रही हूँ 
तुमलोगों के प्रेम के लिए 
अब भी तराश रही हूँ 
माँ तुम्हारी कोख में मैं भी 
भैया की तरह नव महीने तक रही 
जन्म मेरे भी तुम वही कष्ट सही 
माँ मैं भी तो हूँ तुम्हारी संतान 
मैंने भी तो किया तुम्हारे स्तनों का पान
फिर भैया से ही केवल क्यों करती हो प्यार 
बेटी के साथ ये कैसा दोहरा व्यवहार 
माँ मैं भी बन सकती हूँ तुम्हारा सहारा 
मौका दो जीत कर दिखला सकती हूँ जग सारा

Thursday, March 11, 2010

wah ladki

वह लड़की 

एक बच्ची खेल रही थी 
सड़क के किनारे तपती धूप में 
सहमते हैं लोग जिस तेज से
उसी की परछाई में बैठ वह 
खेल रही थी कुछ पत्तों से
ये वही पत्ते हैं जो सह न सके 
प्रचंड ताप को 
कुछ ही दूरी पर बन रही है सड़क
रोलरों और दमरों  की गति 
लू को भी दे रही है चुनौती 
पत्थर और अलकतरा डालती 
व्यस्त हैं औरतें अपनी काम में 
अंगारों पर चलने वाली 
इन्ही में से एक है माँ 
उस बच्ची की
जिसके अर्धनग्न बदन को
कर दिया है काला 
सूर्य की तेज ने
मां की ही बुलंद हौंसलें की तरह 
इस बच्ची के भी हैं हौंसलें बुलंद 
जो आँखों को मल कर 
लू के थपेड़ों में भी मुस्कुरा रही है
हथोंड़ों, कुदाल और बेलचे को ही 
अपना खिलौना मान रही है
दमरों और रोलरों की गडगडाहट पर 
नाचती है वह लड़की 
पत्थरों की पटकने की धुन पर 
गाती है वह लड़की 

Saturday, October 10, 2009

patrakar

पत्रकार
  सपनों की दुनिया भी अजीब होती है
जिंदगी के करीब होती है
हो जाये पूरी तो नसीब
नहीं तो ये गरीब होती है
 अक्सर आता है सपना मुझे
की मैं पत्रकार हूँ
समाज की हर बुराई से लड़ने को
तैयार हूँ
लोगों की चेतन जगा रहा हूँ
समाज से हर बुराई को भगा रहा हूँ
पर मैं तो अपाहिज  हूँ हांथों से
पकड़ नहीं सकता कलम
इन हांथों से
आपहिज होने के कारण रह जाती है
कभी कलम गिरवी
बुझती है आग पेट की
पर मान में है कुछ दहकती
क्या पेट की है इतनी बड़ी मजबूरी
मन से है पेट की इतनी ज्यादा दूरी
अब तो मैं सपनो की दुनिया में ही रहना चाहता हूँ
पेट तो छोटा कर आदर्श में ही जीना चाहता हूँ.