Saturday, April 10, 2010

अनपढ़ औरत


अनपढ़ औरत 
जानता हूँ एक औरत को जो 
अनपढ़ है 
इस एक अवगुण को छोड़कर 
सर्व गुण संपन है 
सादगी और सुन्दरता 
की मूरत है 
छलकता हुआ प्रेम 
कमसीन सी सूरत है 
करती है सबकी सेवा 
सबको है अपना माना
पर जरा सी चूक पर
देते हैं सभी उलहाना
अनपढ़ और गंवार 
पर इस दोष के लिए 
वह तो नहीं जिम्मेदार 
स्कूल नहीं गाँव में 
इसमें बदकिस्मती किसकी 
माँ-बाप ने पढाया नहीं 
यह नियति किसकी 
हर उलहाना  के बाद भी 
होंठों पर नाचती है मुस्कुराहट
भूल कर भी नहीं चाहती
करना किसी को मर्माहत 
मर चुकी है सारी इच्छा 
पर बच्चों को अपने 
पढाना  चाहती है 
उन्हें न दे कोई उलहाना 
इस कदर बनाना चाहती है.